एक प्यास मन में गोविन्द की…!!

बेअंत बेअंता बाप भगवाना , तुध लहे सुध हम गरीबन जन की
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

वास करो ृदय संग किरपा धार गोसाईं ,
छूटे जंजाल मन के, प्रीत तुझपे लगाई,
रंग ना उतरे श्याम का, फिर श्यामा मैं कहलाई,
तीसर होयो उजाला, घट बजे रूहानी घंटन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

कह सुनाऊ कैसे, धुंध हटाए रोशन भीतर हुआ,
तू दीसे तू सुंनिये तू सब ठोर, जब मैं मुआ ,
ठहरा दिओ जिया मोरा, घुमत घुमत बन चूहा,
मन मारिया कर धार तेज़ नाम तेगन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

अँखियाँ भई मोतियाबिंद, बाहर दरसन की लेह आस,
दसुं दिसा फिरे मारा, न सुख न रूह ने पायो छणिक रास,
मुग्ध भये भटकुं सब थाई, अंदर आनन्द रमिया मोहे पास,
साफ कपड़ लिए ओढ़ सुन्दर, बन भग्त पर स्वछ ना सूरत मन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

ऐकस रामा, ऐकस नामा, ऐकस ईसा की जाता,
नील सफ़ेद भगवा धार मोह माहे भरमाता,
रबाबा ताल ढोल बजा, इष्ट आपण का जाहिर किया मनाता,
ना ध्याया, ना पाया, ना सोझी पाहे गई दिल विराजे भगवन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

काहे दरस होये प्रभु तेरे, बंदा बंद कितना लगा लिया,
वासना, क्रोध, मोह, लोभ, भर तन अहंकार का किया,
ना सेवा, ना कमाई गुर की, डूबा जीणा जेह में मिलन की बरिया,
पट्ट नाही खोले संतवाणी को, कित सुने हरी धुन बजी झन झन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

गोविन्द मिलन की पौढ़ी, गुरु आँगन सुं चढ़ पावे,
नाम लेह संतन की सुध का, अखियन बीच ध्यान बिठावे,
किरपा की बरखा बरस रही तहाँ, गुरु गोविन्द को दीदार दिखावे,
उड़ उडारी तन भीतर से, पहुंचे रूह निजधाम नगर माधवन की,
एक प्यास मन में गोविन्द की, चाह राखि मह में नाम धन की !!

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क़दर…

माँ दिवस मनाते हो, पर माँ को नहीं मनाते कभी,
रोता हुआ छोड़ा ना था उसने, अब सब तोहमते वो सह रही,
घर-आँगन सब तुम पर लुटाया, और वृद्धा आश्रम में सड़ रही,
इंटरनेट पर सारा प्यार दिखे, घर में छोड़ी है अकेली,
माफ़ करना अक़्लो वालों, यह तो कोई क़दर नहीं !!

दर्द असीम सह कर उसने साँसे तेरी ज़िंदगी को दी,
तेल की मालिश करके रमाया तुझे, बुरकियाँ डाली निरि घी की,
सीने का पिलाके अमृत सारा, दुवाओं की उसारे हवेली,
फिर भी तुझे कोई फर्क नहीं,
माफ़ करना अक़्लो वालों, यह तो कोई क़दर नहीं !!

रोटी हिस्से की अपनी, तेरी थाली में रख है देती,
भूखे खुद सोना भी पड़े तो भी नैनों से चमक उतरती नहीं,
कसूर हर तेरा छिपा कर सबसे,नज़र तेरी ऊँची ही रखती,
कदरां जान ही ना पाए, इस फकीरी की,
माफ़ करना अक़्लो वालों, यह तो कोई क़दर नहीं !!

तेरे नन्हे क़दमों को काँटा तक चुभ कहीं ना जाए,
पग पग पे लाडों के साथ गोदी में फिरती उठाये,
भरी दुपहरी में बीच रास्ते के चुन्नी का परछावा बनाये,
फिर क्यों उम्र की थकी राहों में, आज ये कुरला रही,
माफ़ करना अक़्लो वालों, यह तो कोई क़दर नहीं !!

पत्थर बन गया है तू पर फ़िक्र तेरी अब तलाक करती है,
कहीं लग ना जाए कुछ तुझे, तेरी सलामती की आँहे भरती है,
जिया ना एक पल भी अपना और तेरे दम के लिए मरती है,
नम नज़रों से रुखसत हो जायेगी, क्यों पोंछ नहीं सकता इसकी नमी,
माफ़ करना अक़्लो वालों, यह तो कोई क़दर नहीं !!

 

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माँ तेरे आँचल में….!!

कमाल का सब्र है तुझमे ,
न चुभता है, ना दर्द देता,
कोई भी गम चाहे मिले,
जन्नत क्या सुकून देगी,
जो पनाह तेरी में पले,
लफ्ज़ कहने को सिर्फ एक है,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

क्या खाया, कैसा है, कहाँ है,
इन्ही चंद सवालात में जान बसे
अपने बच्चे की सलामती खातिर
ना जाने कितने व्रत तू है रखे,
हर बला तेरी नज़र से जाए जले,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

ज़िंदगी की शुरुवात तुझी से होती,
हर कली को सींचे तेरी आँख का मोती,
लगे चोट अंश को तो, सबसे ज़्यादा तू ही रोती,
हर दर्द गवारा हो जाता जब सीने जा लगे,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

हर मुस्कान औलाद पे लुटा कर,
हर दुःख को सबसे छुपा कर,
खुशियो की हर वजह बन कर,
नदी की धारा सी बस बहती चले,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

हर सांस में दुआ ही दुआ भरी रहती है,
पसंद हो औरो को, वही सोचे, वही कहती है,
संग तेरे आराम वाली, खुशबु सदा बहती है,
धूमिल होती नज़रो में भी चमक ही दिखे,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

लिखता चलु, लिखता ही रहु, लिखा फिर भी ना जाए,
तेरी खूबियाँ, मोहोब्बतें, फ़िक्रे कैसे बयाँ हो पाए,
गाते गाते गुण तेरे कलम की भी आँख भर आये,
गले से लगा ले फिर चरण को, एक यही खुदा मिले,
पर माँ तेरे आँचल में कुल आलम खिले !!

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वफ़ा

ग़मो से भरे दिल को दिखा नहीं सकता
दवाई है नहीं पास तेरे इसको रिझा सके
संगम उस टूटे पल से कौन करवाएगा
रूह मेरी को उसके नशे में कौन भीगा सके
बावरा मन मेरा हुआ ही नहीं उसका,
अब क्या तो किसीकी निभा सके।

यह मर्ज़ मोहब्बत से मिला,
पर किसी के नाम का कहाँ कोई गिला,
इबादत का है अनोखा सा सिलसिला,
किसी में क्या दम जो मुझे डिगा सक…
बावरा मन मेरा हुआ ही नहीं उसका,
अब क्या तो किसीकी वफ़ा निभा सके।

आबाद होने का दावा होता है,
जनाब इन्हीं बातों में झूठ मोटा है,
बर्बाद कर दिया जाता है,
और मुस्कान भरा मुखोटा है,
खुद की भी हिम्मत नहीं जो हटा सके..
बावरा मन मेरा हुआ ही नहीं उसका,
अब क्या तो किसीकी वफ़ा निभा सके।

मुझे ज़रूरत अब रही कहाँ ज़माने की
नाप सको कोई समझ भी है मेरे पैमाने की,
उतर गई लाज, उड़ गई वजह शर्माने की,
बेहरा हो चूका हु, पर आदत जाती नहीं तेरी सुनाने की,
मर ही गया उस इलज़ाम से जो सर मेरे ना टिका सके…
बावरा मन मेरा हुआ ही नहीं उसका,
अब क्या तो किसीकी वफ़ा निभा सके।

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ताकत – ए – रूहानी

शुक्रान शुक्रिया शुक्रगुज़ार हूँ
मैं अपने बेपरवाह उत्तों
हजारों हज़ार सलाम परवरदिगार नूं
पैदा हर शह जिसदी पनाह विच्चों
रोम रोम खिड़े बहारों बहार हूँ
खुदा उतरिया आप असमान तो
हर ताकत गावे गुलज़ार साज़ो
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!

ख़ुदा रमज़ पाक किसे हक़ ना आई,
ते शह शह रुषना गया रूहानी,
लफ्ज़ फिक्रमंद फिरे जाए ना गाथा गाई,
नूर फूटा जग ऊपर लासानी,
शाहों दा शाह फ़क़ीर मस्त दम दम ख्वाज्जो
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!

रहमान रहीम, अल-खबीर ख़ुदा,
लूँ-लूँ चमकता शुमार तेरा है,
बंदा-बख़्श गरीब-नवाज़ कोई कण ना तुझसे जुदा,
रूह-रूह दमकता बेपरवाही बसेरा है,
दम हक़दार-ए-मुक़ाम जो आप जाए नवाज़ों
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!

पाक़ ज़मीन जलालआने दी,
जहाँ चरण आन टिकाये तू,
धन पिता वरियाम महारुह,
सजदे माता आस कौर ममता नूं,
भवसागर पार उतारण काटी चौरासी लाखोँ
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!

मालिक-ऐ-आलम मस्तो मस्त मस्ताना पिता प्यारा,
सूरत बताई अनामी, सतनाम का दिया ईशारा,
पैड़ रब्ब की, चढ़ाये बन्दे को रूहानी राहोँ
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!

भूलों को राह बताये, सत्संग कर नाम दिया,
अरे! भटकते बाशिंदो, तीजी बॉडी में इसी ने जाम दिया,
हम थे, हम है, हम रहेंगे, ऐसा गुढ़ पैग़ाम दिया,
दूर करो हर शक़ को ख़ुद से, आप वरतदा खंडो-बरह्मंडो
ताकत – ए – रूहानी ‘सतनाम’ संतों !!
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गम भरी रात :(

गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,
कभी भी ज़िंदगी हसना सिखाती ही नहीं
लकीरें अब तलक जो खींची, वो रेत हो गई
पल हँसता हुआ भी हो, खुशी आती ही नहीं !!

डर खुद से जाता हु , चाहू कुछ पर ओर ही पाता हु
किसी अपने को खोजता और अकेला ही रहता हु
दिशाओं में घूम लिए, रूह पास किसी को पाती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

ऊँचा उठने की कसक दिल की पीड़ बन निकलती है
मिलते ही होते जो हाथ की ढाल से ज़िंदगी फिसलती है
अरसे बीत रहे, फर्श पे ही पड़े, किस्मत उठाती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

पराये मिलते होंगे औरों को घर से निकल जाने से
अपनों में ही पाये जो नकारते है अपनाने से
दीये तो बहुत है, मैं तो किसी की बाती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

सीने की गर्मी शांत हो ऐसा कोई पहर नहीं
हो इंतज़ार मेरा कहीं, ऐसा कोई शहर नहीं
नयनों से बेहते नीर को पलक सुखाती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

आँखों का खून है की दर्दो से भरा छलता है
बिन अपनों के कोई अंजान बना पलता है
इंसानो में इंसानियत कोई नज़र आती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

दर्दो का दरिया बेहता नसों में कहीं जम ही जाए
कट रही अकेली राते, सांस अब यही थम ही जाए
मरके जीना हुआ, और जाते जाते जान जाती ही नहीं
गम भरी रात है जो कभी जाती ही नहीं,

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“माँ “

पूजा जिसकी खुदा करें, वही तू भगवंत है
ज्ञानियों का ज्ञान जिसमे वही तू महंत है
फूटे जीवन जहां से वही तू पुंज जीवंत है
आर है ना पार है तेरा रूप बेशुमार है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

उगते सूरज के जैसे तुम मानव रोशन करती हो
अंकुर हुए बीज को, रोज़ ममता से भरती हो
महीने नो रख भीतर अपने, पीड़ा सहती तू बेअनन्त है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

सूखे में लाल सुला कर, गीले में पड़ जाती है
अमृत पिला के सीने का, अंश की भूख पुगाति है
वैर का भाव किसी से रखे ना प्यारी वो तू सतवंत है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

कलि नूतन निखरी जो, गुणो के नीर से सींचे माता
रब्ब इसमें जीता है, हर अवतार यही रहे समझाता
दुआ से तेरी दुनिया बसती, ऐसी तू सच्ची संत है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

गंगा सी निर्मल काया तेरी, आँचल में पूण्य पलते है
दुःख रोग संताप सभी तो, तेरे कहने भर से जाते जलते है
पाक अज़ान सी आवाज़ तेरी, आभा मंदिर का घंट है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

कदमों पे तेरे हज़ारो बहारे, हाथों में बरकत सभी
हर बच्चे का साया रहो तुम, दूर जाओ ना किसी से कभी
फूल हसी से खिल जाते है, वो मनमोहन मौसम तू बसंत है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

जिसके ऊपर तुम्हरी नज़र, कहीं वो खाता मात नहीं
साँसों बाद भी रहती हो तुम, रखता ऐसा कोई साथ नहीं
सबसे सुच्चा, सबसे ऊँचा, मानव का तुझसे बंधा सम्बन्ध है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

तू सबसे पावन ऊँची मूरत, जिसमे बसता जगत सारा
ईश्वर के हज़ारों नाम, “माँ” लेकिन सबसे प्यारा
बखाण पूरा तुझे कर क्या सकें, शब्दों का भी हुआ अंत है
सजदे रोम रोम से “माँ ” तेरा प्यार तो अनन्त है !!

(Picture is of My beloved mother- Love you माँ ❤ )

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मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

जहान तो वो होता है ना जीते हो जहां तुम
मैं कहाँ हु जो रहता हु गुमसुम
कुछ ऐसे ही सवाल परेशान करते थे हरदम
अपनों में परायों सा हु
कुछ बता तो गुनाह दो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

अभी तक क्या समझ पाया था
तन्हाई का अँधेरा ही छाया था
मैं चुप था रहता
सब था सहता
दो बोल मीठे चाहता था
फिर चाहे दो रोटी भी ना दो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

मैंने कपड़े भी तो नए मांगे नहीं
रोता रहता था बिस्तर पर पड़ा पड़ा वही
तुम समझते जो न थे तो मुस्कुराता जूठी हसी
माँ ना, तो उस वाला हाथ सर पे फिरा एक दफा दो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

दूर कभी होना नहीं चाहता था
लिख लिख खतो में सब बताता था
तुम्हारे सामने आ जाने से घबराता था
अपनाकर नहीं पर जुठ मुठ ही अपना लो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

चाहू क्या एक नज़र प्यार वाली
खुशियाँ घर के त्योहार वाली
कड़वाहट चुभती थी मेरे अनाथ मन को
जैसे मार किसी तलवार वाली
चलो ज़ख़्म मिले हो पर अब तो कोई दवा दो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

मूड के तुम्हे अब भी रोज़ बुलाता हु
ठुकराने पे मज़ाक समझ सो जाता हु
खुशियों से दूर हु, चाहे पैसे कितने ही कमाता हु
सबसे अलग ठहरा, कभी अपनों वाली ही परवाह दो
मुझे घर में नहीं दिल में पनाह दो !!

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जो रोटी उसे कभी ना पची… !!

किसी का नज़रिया कुछ भी हो सकता है। कोई कैसा भी सोच सकता है, पर जब बात हो नन्हे से मन की , बात हो उस कली की जो अभी अंकुरित ही हुयी थी और उसने सांस लेना सीखा भर था। क्या तब भी कोई कुछ भी सोचेगा , क्या तब भी उस नन्हे से मन को समझने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए, कितने ही ख्यालों से वो लड़ता होगा। कैसे यकीन दिलाता होगा अपने दिल को……

उसकी उम्र अभी खेलने की थी, ज़िद्द करने की थी… नाराज़ होने की थी। सुबह उठाने पर बिना सर -पैर वाले बहाने बनाने की थी…. मुस्कुराता मासूम सा चेहरा हमेशा अपनी ही दुनिया में मस्त रहने वाला दिल एक अनसुलझे बदलाव से कब बड़ा हो गया शायद वो खुद भी नहीं जान पाया था… रोज़ स्कूल को जाते हुए मुंह बनाना और वापिस आते हुए नाचने वाला वो नन्हा सा नूर मुरझा सा गया था।
जब एक पोधे को उसकी जगह से निकाल कर लगाया जाता है तो पहले वो भी थोड़ा मुरझाता है फिर कही जाकर अपनी असल खुश्मयी शक्ल को पाता है…. पर इतना आसान नहीं था उसके लिए अपनी जगह से.. अपनेमूल से.. उखड कर कही ओर बसना

वो खो चूका था अपने अस्तित्व को। उसे समझ आ रहा था की अब खेलना उसका बचपन नहीं है… खुद को अपनी जन्मभूमि पर पीछे छोडता हुआ बिखरे मन से छोटी छोटी चीज़े बटोर रहा था और उठा उठा कर अपने अटैची में डाले जा रहा था..
कभी अपने खिलोने देखता, तो कभी घर-घर खेलने वाला सामान उठाता जैसे की प्लास्टिक का कुकर, चीची ऊँगली जितनी चमचे, एक बिलात की करछिया और रंग-बिरंगी तरह-तरह की प्लेट्स। उठा कर इन छोटे से बर्तनों को सम्भाल के रखता…. फिर आँखों का आंसू पोंछते सोचने लगता की जब अपने घर के बड़े बरतन वो नहीं ले जा पा रहा जिसमे वो अक्सर रोटी खाता होता था….. और यह सोच कर वापस सब खिलोने और बर्तन निकालके पटक दिए
जब बाहर झांकता है तो देखता है की बरामदे में कोई किसी चीज़ को पसंद कर रहा है तो कोई किसी कपडे को….. वो समझ नहीं पा रहा था की यह मेला है या उसके टूट जाने का जश्न
अटैची की तरफ देख कर उसे लगता है की बस अब कुछ रह गया तो उसकी फोटो रखना जिसकी वजह से वो है….. और वो उसकी “माँ ” थी।

दिल मानता ही नहीं था…. हाथ मानो रुक गए हो जैसे कभी इनमे जान थी ही नहीं….. वो उन पलों में खोया दुबारा से अपनी माँ के आँचल को महसूस करने की कोशिश में ही था की तभी उसके चाचा की आवाज़ ने उसका यह दो पल का सुख भी छीन लिया……. चाचा आवाज़ दे कर उसे सब छोड़ कर चलने का याद दिला रहे थे……
चीखना चाह रहा था…. पर आखिर उसे जाना था…… फटाफट तस्वीर को अटैची में रखता है……. हाथो से सहलाता है….. चूमता है….. बंद करके अटैची को खींचता हुआ बाहर ले जाकर खड़ा होता हुआ अपने आँगन को निहारकर बिना रोये बिना बोले बाहर खङी कार में बैठ जाता है। कुछ मिंटो के बाद उसके चाचा कार में आते है और उसे थोड़ा हट कर बैठने को कहते है और ड्रॉवर को कार दौड़ाने कोबोलते है….

अपना बचपन…. अपना घर….. और वो नन्हा सा मन शायद साथ लाया ही नहीं था। सब पीछे छोड़-छाड कर वो बहुत बड़ा हो चला था।
सात घंटो के उस रास्ते में सात साल का जीवन जी चूका था….. और जब चाचा के घर पहुँच तो वो सिर्फ शरीर से छोटा था…..पर असल में उम्र से ज़्यादा ही समझदार बन गया था….. एक कभी ना बदलने वाले उस लम्हें ने उसे बड़ा बना दिया था।
उसके अंदर का बच्चा मर गया था….. उसे खुद से लड़ना था…. खुद को त्यार करना था ताकि वो हिम्मत बांध सके।

इन सात सालों जैसा सफर खुद को घड़ने में, बड़ा बनाने में कब गुज़र गया उसे पता ही नहीं चला। कुछ खास स्वागत नहीं हुआ था उसके चाचा के घर…..मानो ज़बरदस्ती लाया गया हो। बताया जा चूका था की उसको कहा पर अपना सामान रखना है….. फर्क ही नहीं पड़ रहा था की वो नन्हा सा ग्यारह साल का बच्चा अपनी टूटी हुयी ज़िंदगी को एक अटैची में समेट कर कही से उखड कर यहाँ आया था।

अपना सामान एक तरफ रख कर….. अपनी जलती लाल आँखों को मसल कर, उसने सोचा की चाची के पास हो आउ, मानो समझ रहा हो की माँ का प्यार चाची की गोद से नसीब होगा…. नंगे पैरों से धीमे-धीमे अपने चाचा-चाची के कमरे की तरफ जाता हुआ ख्यालो में खोया कही चल रहा था।
कमरे के नज़दीक पहुँचते ही उसे एक ऊँची आवाज़ सुनाई दी जो कह रही थी की क्या ज़रूरत थी घर लाने की…. किसी अनाथ आशरम में छोड़ आना था, अब दो रोटी फ़ालतू बनानी पड़ेगी….. !!
बस, इतना सुनना भर ही था की तभी वो रोता तड़फता आँखों को हाथो से ढकता हुआ उस कमरे में आ जाता है जो उसे रहने के लिए मिला था…… बार बार आँखों को मसलता है….. डांट लगाता है और मना करता है अपनी आँखों को की ना रोये ना आंसू निकाले… उसे समझ आ गया था की वो अपनी माँ के सिवाए किसी का प्यारा नहीं है
थोड़ी देर में चाची की आवाज़ आती है, “बेटा ! आजाओ खाना खा लो.. !”
अपनी चुभन को छुपाए, आँखों को समझाकर-मनाकर और दिल को नकली सा दिलासा दिलाकर, खाने की मेज़ पर आ बैठता है… प्यारी चची सर पे हाथ फेरते हुए बोलती है, “दो रोटी खा लो बच्चे”
आंसुओं को हाथ की रगड़ से छुपा कर रोटी निगलने लग जाता है…. जो रोटी उसे कभी ना पची… !!

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Jee Chahta hai

Kuch ashiyaane bunane ko jee chahta hai
Na bolu chup rahu, aur sunane ko jee chahta hai
Iss kadar zameen ke niche ugg padu
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Vayarth hi bhaga unn lamho ke peeche, jaise mitti par nishan pairo ke
ek jhonka tufaan ka aya aise, mitti mitti nishan ho gye
ojhal iss trh wo sb huye, inn ankho ko rulane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Wo khda ped ki bhhanti rehta, sunta hilta kuch na kehta
Hazaaro manzar namnzur bhi apnata, aur rass nadi sa behta
Na shakhein rahi na jadd bachi, fir bhi dhaara se muh dhulane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Chahe chhaut kru, chahe khhot kahu, patjhad patjhad maru maru
Lehlahaati hasi uspe jo bharu, basant si haryaali hojaye shuru
Nikal gya zamanaa chhaya ka bhi, ab peeth sna jhulas jane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Naa seench ska ek pyar ki boond se, na kheench ska ishq ki funk se
Naa jaagi paane ki bhukh re, naa awaz lgayi gale ki thunth se
Yaado mein bse sadiyu baad, paas pahunch jaane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Kya kadar ka shokh pala usne, har kanta khushi se nikala usne
Chubh jaye-lahu laaye, yeh darr se, khal chilli tann ki khud se
Aur jhulta hai ab khilta hai, wahi din suhane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

Nishaniya rahi na kahaniya rhi, na zuba pe karmo ki bkhaniya rahi
Plle bachi nadaniyaa rahi, guroor unka jo jo jhuthi kamyaabiya kahi
Khoyi sachi rehnumayi ki, ek dfaa jadd ugaane ko jee chahta hai
Dard-dwa ka ehsas fanah ho, aise sb bhulane ko jee chahta hai!!

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